असीम राज पाण्डेय, रतलाम। जिले के एक थाने में इन दिनों कानून का तराजू सीधा नहीं, टेढ़ा तना दिख रहा है। आमतौर पर छोटे-मोटे अपराधों में पूरे परिवार को थाने में बैठाकर रूबाब दिखाने वाली खाकी इस बार रसूखदार की कार से रौंदे गए दो युवकों के मामले में “मोबाइल लगा रही है”। घटना में एक युवक की जान गई और दूसरा अस्पताल में जूझ रहा है, लेकिन खाकी अब तक बस ‘कॉलिंग बेल’ बजा रही है। 18 घंटे बीत गए, गाड़ी नहीं मिली। जब मीडिया ने पूछा तो पुलिस ने चुप्पी साध ली। बाद में प्रत्यक्षदर्शियों के बयान और गाड़ी के नंबर सामने आए, लेकिन फिर भी कार्रवाई की रफ्तार वही रही जैसे सरकारी घड़ी हो। घटना के तीन दिन बाद जब परिजन थाने पहुंचे तो जवाब मिला, “हम आरोपी को कॉल कर रहे हैं, उसका फोन बंद है।” ये अंदर की बात है…कि खाकी ने शुरुआत से ही इस केस में आरोपियों को बचाने की तैयारी कर रखी थी। पहले कहा गया, वाहन मिला ही नहीं। फिर जब परिजनों ने खुद गाड़ी का नंबर बता दिया, तो एक ड्राइवर का नाम डालकर रसूखदार को बचाने का खेल शुरू हो गया। सवाल यह है कि जिस सिस्टम में मोबाइल बंद होने पर इंसाफ बंद हो जाए, वहां पीड़ित किस दरवाज़े पर जाए?
पानी की टंकी में निगम की डूबती साख
शहर की सबसे बड़ी पेयजल योजना “अमृत मिशन 2.0” का नाम तो ‘अमृत’ है, लेकिन इसे देखने वालों के माथे पर पसीना ला दिया है। शहर के अमृत सागर बगीचे के सामने जोर-शोर से भूमिपूजन हुआ था, नारे लगे थे, कुदालें चली थीं। माननीयों और नगर सरकार ने इसे जनता को ‘बड़ी सौगात’ बताया था। पर जब पता चला कि जिस ज़मीन पर पानी की टंकी बनाई जा रही है, वह सरकारी नहीं, निजी है, तो सबकी बोलती बंद हो गई। भू-स्वामी कोर्ट से राहत लेकर आया और नगर निगम के मुंह पर कानून का तमाचा जड़ गया। अब सवाल यह है कि करोड़ों के प्रोजेक्ट का टेंडर, एस्टिमेट, साइट इंस्पेक्शन सब आंख मूंदकर कैसे हुआ? इंजीनियर साहब ऑफिस में बैठे-बैठे कागज़ों पर ताजमहल बना गए, और मैदान में खड़ी टंकी की बुनियाद ही खिसक गई। ये अंदर की बात है… कि शहर के नागरिक अब निगम को घोटालों के साथ महत्वाकांक्षी अमृत योजना को अब ‘अमृत हास्य योजना’ के नाम से पहचानने लगे है।
साहब की तिकड़म पर कप्तान की टूटी चुप्पी
आईएसओ प्रमाणित थाना, और उसमें तैनात साहब जिनके कंधे पर तीन तारे चमक रहे थे। अब वह साहब लाइन में लग चुके हैं। कहते हैं जिम्मेदारी बड़ी हो तो जवाबदेही भी बड़ी होनी चाहिए, लेकिन साहब शायद यह पाठ थाने की कुर्सी पर बैठकर भूल चुके थे। थाने के अंतर्गत सट्टा-जुआ इस कदर फल-फूल रहा था कि सटोरिये खुलेआम चौराहे पर पर्चियां लिख रहे थे, और वीडियो बन रहे थे। एक हिस्ट्रीशीटर ने तो थाने में खुद को आग लगा ली, और एक अन्य केस में युवक की मौत के बाद भी साहब की नींद नहीं टूटी। कप्तान की नाराज़गी अब खुलकर सामने आ गई, और तीन तारों वाले साहब को लाइन में भेज दिया गया। अब थाने की कमान एक नए अधिकारी को मिली है, जो नक्सल प्रभावित इलाकों से ट्रांसफर होकर आए हैं। उनकी सख्ती के चर्चे रतलाम तक पहुंच चुके हैं। ये अंदर की बात है… कि जनता के मन में एक ही डर है कहीं ये भी कुर्सी पर बैठते ही पुराने साहब न बन जाएं।