रतलाम, वंदेमातरम् न्यूज।
शास्त्र में गुरु की व्युत्पति करते हुए कहा गया है- गारयति ज्ञानम् इति गुरुः । गुरु उसे कहते हैं जो ज्ञान का घूंट पिलाये। ज्ञान का मानव जाति के लिए जो महत्व है उसे बतलाने की आवश्यकता नहीं। स्थूल और सूक्ष्म, ज्ञान आत्मा और परमात्मा का, ज्ञान कारण जगत का और ज्ञान स्वयम को जानने तथा समझने के मार्ग का। सच्चा गुरु एक दिशा सूचक यंत्र है जो सदैव सन्मार्ग की दिशा प्रदान करता है।
ज्ञान दो प्रकार के होते हैं- एक तो स्वयं प्रकाश्य अर्थात अपने आप पैदा होने वाला और दूसरा परतः प्रकाश्य अर्थात दूसरों के द्वारा प्राप्त होने वाला। परतः प्रकाश्य ज्ञान तो सीधे गुरु के द्वारा ही प्राप्त होता है लेकिन स्वयं प्रकाश्य ज्ञान में भी गुरु उस ज्ञान को इंगित करके शिष्य की बुद्धि को ज्ञान की दिशा में प्रवाहित कर देता है, जिससे स्वयं साधक अपने लक्ष्य का आभास पाकर उसे ही प्राप्त करने में तन-मन-धन से जुट जाता है और फिर अंततः अपनी साधना में सफल होता है। इस प्रकार दोनों प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति में गुरु का महत्वपूर्ण योग रहता है। यही कारण है कि वेदों से लेकर आज तक भारतीय साहित्य में गुरु की अपार महिमा वर्णित की गई है। गुरु चेष्टाओं को नष्ट कर, चेतना को प्रबल करते हैं। गुरु नश्वर और अनश्वर के भ्रम को समाप्त करता है। गुरु प्रकाश का शिवाला है।
गुरु पूर्णिमा का उत्सव क्यों मनाया जाता है इसको जानने के लिए भारतीय मनीषा का अनुपान करना होगा। कृष्ण द्वैपायण वेदव्यास का जन्म आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को उत्तराषाढ़ नक्षत्र में हुआ माना जाता है। अतः आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा के नाम से प्रसिद्ध है।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवै नमः ।।
पुरातन ग्रंथों में पराशर नन्दन व्यास को महाशाल शौनकादि कुलपतियों तथा गुरुओं के भी परम गुरु साक्षात् वादरायण माना गया है। पुराणों में व्यास परमपूज्य घोषित किये गए हैं। यतिधर्म समुच्चय में कहा है-
देवं कृष्णं मुनिं व्यासं भाष्यकारं गुरोर्गुरूम।
कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण द्वैपायण वेदव्यास वेद, पुराण, महाभारत, वेदान्त-दर्शन (ब्रह्मसूत्र), सैंकड़ों गीताएँ, शारीरिक सूत्र, योगशास्त्र के साथ ही कई व्यास स्मृतियों के रचयिता हैं। ऐसा माना जाता है कि वर्तमान का सम्पूर्ण विश्व विज्ञान एवं साहित्यिक वाङ्मय भगवान व्यास का उच्छिष्टत है। कहा है-
व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम् ।
शास्त्रों में यह भी वर्णित है कि प्राचीन काल में वर्षा के आरम्भ होने के कारण वानप्रस्थी एवं सन्यासी गुरुजन जंगलों से नगरों में वर्षा के चार महीनों को वहाँ व्यतीत करते थे तथा गृहस्थों की जीवन रक्षा एवम आरोग्यता के लिए बड़े-बड़े यज्ञ किया करते थे। आषाढ़ सुदी पूर्णिमा को इन गुरुजनों की पूजा अर्थात अतिथि सत्कार, श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक शिष्य एवम गृहस्थीजन करते हैं।
तुलसीदास ने गुरु को शंकर स्वरुप कहा है – वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुशंकर रूपिणम ।
गुरु की स्तुति में तुलसी ने बहुत कुछ लिखा है ।
वन्दौ गुरु पद पदुम परागा ।
सुरुचि सुवाष सरस अनुरागा ।।
तुलसी ने गुरु का महत्व बताते हुए उसके स्मरणमात्र से होने वाले लाभ को भी बतलाया है, कि गुरु की कृपा से ह्रदय के नेत्र खुलने से साधक को दिव्यदृष्टि प्राप्त होती है –
उधरहि विमल विलोचन हिय के ।
मिटहिं दोष दुःख भाव रजनी के ।।
सूर के विषय में तो एक कहावत ही प्रचलित है की उनके गुरु बल्लभाचार्य ने उनके कर्तृत्व को ही उलट दिया था ।सूरदास के दैन्य एवं आत्मग्लानि के पदों को सुनकर बल्लभाचार्य ने कहा था कि क्या घिघियाते ही रहोगे, कुछ कृष्ण की लीला गाओ? और फिर वात्सल्य और श्रृंगार का सूरसागर उताल तरंगें भरने लगा था, जो आज भी हिन्दी साहित्य के लिए गौरव की वस्तु मानी जाती है ।
जायसी के पद्मावत में सुआ गुरु का काम करता है –गुरु सुआ होई पंथ देखावा। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रेम मार्ग में भी गुरु का महत्व है। वही प्रेमी को प्रिय की ओर सर्वप्रथम उन्मुख करता है। प्रिय का आभास मिल जाने पर प्रेमी में उसे पाने की अदम्य लालसा उत्पन्न होती है। इस प्रयास में साधक के साथ-साथ निर्देशक के रूप में सदैव गुरु रहता है। शिवा जी व्यक्तित्व को विशाल और अविस्मरणीय बनाने में गुरु रामदास जी महिमा महत्वपूर्ण है।विवेकानन्द को स्वामी रामकृष्ण का शक्ति प्रस्फुटन कहा जा सकता है। राम के पार्श्व में विश्वामित्र और वशिष्ठ विद्यमान है।
गुरु साधक के लिए ही नहीं अपितु गृहस्थ के लिए भी आवश्यक है। गुरु सच्चा हो तो जीवन संवर जाता है और खलकर्मी मिल जाए तो गुरु शिष्य दोनों नरक में पड़े रहते हैं।
एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि सच्चा गुरु सात जन्मों के सौभाग्य से ही मिलते हैं। मनुष्य अपनी चेष्टाओं के अनुसार गुरु तलाशता है और उसे वैसा ही गुरु मिल जाता है। गुरु का कार्य भव बंधन को काटना है। कुमार्गी चेष्टाओं और खलनायक बनाती वासनाओं को भस्म करना है। गुरु की दृष्टि धन पर नहीं मन पर होती है। गुरु के संवाद और गुरु का मौन दोनों ही जीवन उद्धारक होते हैं। गुरु पूर्णिमा के सुअवसर पर ऐसे समस्त गुरुओं को नमन जो अपने तप और जप से मार्ग भ्रमित पथिकों को सन्मार्ग प्रदान करने में अभिरत है।
त्रिभुवनेश भारद्वाज
शिक्षाविद और चिंतक